मंसूर अल हल्लाज

मंसूर अल हल्लाज (858 – मार्च 26, 922) एक कवि और तसव्वुफ़ (सूफ़ी) के प्रवर्तक विचारकों में से एक था जिसको सन ९२२ में अब्बासी ख़लीफ़ा अल मुक़्तदर के आदेश पर बहुत पड़ताल करने के बाद फ़ांसी पर लटका दिया गया था।[5][6][7] इसको अन अल हक़्क़ (मैं सच हूँ) के नारे के लिए भी जाना जाता है जो भारतीय अद्वैत सिद्धांत के अहं ब्रह्मास्मि के बहुत क़रीब है।

मंसूर अल हल्लाज

मंसूर अल हल्लाज को फांसी दिये जाने का चित्रण (manuscript illustration from Mughal India, circa 1600)[1]
धर्म इस्लाम
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ
जन्म 858 CE
Fars
निधन 26 March 922 CE[2]
Baghdad, Abbasid Caliphate

परिचय

मनसूर अल हल्लाज का जन्म बैज़ा के निकट तूर (फारस) में हुआ। ये पारसी से मुसलमान बना था। अरबी में हल्लाज का अर्थ धुनिया होता है - रूई को धुनने वाला। इसने कई यात्राएं कीं इनमें ३ बार मक्का की यात्रा भी शामिल है। ख़ुरासान, फ़ारस और मध्य एशिया के अनेक भागों तथा भारत की भी यात्रा की। सूफ़ी मत के अनलहक (अहं ब्रह्मास्मि) का प्रतिपादन कर, इसने उसे अद्वैत पर आधारित कर दिया।[8]

यह हुलूल अथवा प्रियतम में तल्लीन हो जाने का समर्थक था। सर्वत्र प्रेम के सिद्धांत में मस्त होकर इबलीस (शैतान) को भी ईश्वर का सच्चा भक्त मानता था। समकालीन आलिमों एवं राजनीतिज्ञों ने इस भाव का घोर विरोध कर 26 मार्च 922 ईo को बगदाद में आठ वर्ष बंदीगृह में रखने के उपरांत हत्या करा दी।

मूल इस्लामी शिक्षाओं को चुनौती देने की ख़ातिर इनको इस्लाम का विरोधी मान लिया गया। लोग कहते कि वह अपने को ईश्वर का रूप समझता हैं, पैज़म्बर मुहम्मद का अपमान करता हैं और अपने शिष्यों को नूह, ईसा आदि नाम देता हैं। इसके बाद उसको आठ साल जेल में रखा गया। तत्पश्चात भी जब इसके विचार नहीं बदले तो इसे फ़ाँसी दे दी गई।[9]

अत्तार लिखते हैं कि उन्हे तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद इनको जला दिया गया। इन्होने फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है। इसको बाद के सूफ़ी संतों ने भी अपनाया।

मंसूर अली की अपनी वाणी

अगर है शौक अल्लाह से मिलने का, तो हरदम नाम लौ लगाता जा।।

न रख रोजा, न मर भूखा, न मस्जिद जा, न कर सिजदा।

वजू का तोड़ दे कूजा, शराबे नाम जाम पीता जा।।1।।

पकड़ कर ईश्क की झाड़ू, साफ कर दिल के हूजरे को।

दूई की धूल रख सिर पर, मूसल्ले पर उड़ाता जा।।2।।

धागा तोड़ दे तसबी, किताबें डाल पानी में।

मसाइक बनकर क्या करना, मजीखत को जलाता जा।।3।।

कहै मन्सूर काजी से, निवाला कूफर का मत खा।

अनल हक्क नाम बर हक है, यही कलमा सुनाता जा।।4।।

कथा

एक समय की बात है एक गाँव में शिमली नाम की एक शिष्या रहती थी तथा उनका एक भाई भी था जिसका नाम मंसूर अली था, यह दोनों राजा के बेटा-बेटी थी. शिमली रोज़ अपने गुरु जी के दर्शनार्थ तथा सेवा के लिए आश्रम में जाया करती थी, क्योंकि वह पिता जी से आज्ञा लेकर जाती थी इसलिए बेटी के साधु भाव को देखकर पिता जी ने भी उसे नहीं नही रोका। वह प्रतिदिन सुबह तथा शाम सतगुरू जी का भोजन स्वयं बनाकर ले जाया करती थी। एक समय किसी चुगलखोर व्यक्ति ने मंसूर अली से कहा कि आपकी बहन शिमली शाम के समय आश्रम में अकेली जाती है। यह शोभा नहीं देता। एक शाम को जब शिमली संत जी का खाना लेकर आश्रम में गई तो भाई मंसूर गुप्त रूप से पीछे-पीछे बहना का पीछा करते हुए आश्रम तक गया तथा दीवार के सुराख से अंदर की गतिविधि देखने लगा।

लड़की ने संत को भोजन खिलाया। फिर संत जी ने सत्संग सुनाया। मंसूर भी सत्संग सुन रहा था। वह जानना चाहता था कि ये दोनों क्या बातें करते हैं? क्या गतिविधि करेंगे? प्रत्येक क्रिया जो शिमली तथा संत समशतरबेज (शिमली के गुरु जी) कर रहे थे तथा जो बातें कर रहे थे, उन सभी बातों को मंसूर ध्यानपूर्वक सुन रहा था। अन्य दिन तो संत जी आधा घंटा सत्संग किया करते थे लेकिन उस दिन दो घण्टे सत्संग किया। मंसूर ने भी प्रत्येक वचन ध्यानपूर्वक सुना। वह तो दोष देखना चाहता था, परंतु उस तत्वज्ञान को सुनकर कृतार्थ हो गया। उसनें सत्संग में सुना कि मनुष्य जीवन में परमात्मा की भक्ति अनिवार्य है। अल्लाह साकार है, तथा उसका नाम कबीर है।

सत्संग के उपरान्त संत समशतरबेज तथा बहन शिमली ने दोनों हाथ सामने करके परमात्मा से प्रसाद माँगा। आसमान से दो कटोरे आए। दोनों के हाथों में आकर टिक गए। समशतबेज जी ने उस दिन आधा अमृत पीया। बाद में समतरबेज ने कहा कि बेटी! यह शेष मेरा अमृत प्रसाद आश्रम से बाहर खड़े कुत्ते को पिला दे। उसका अंतःकरण पाप से भरा है। उसका दिल (सीना) साफ हो जाएगा। शिमली गुरूजी वाले शेष बचे प्रसाद को लेकर दीवार की ओर गई। गुरूजी ने कहा कि इस सुराख से फैंक दे। बाहर जाएगी तो कुत्ता भाग जाएगा। लड़की ने तो गुरूजी के प्रत्येक वचन का पालन करना था। शिमली ने उस सुराख से अमृत फैंक दिया जिसमें से मंसूर जासूसी कर रहा था। मंसूर का मुख कुछ स्वभाविक खुला था जिसके कारण उसमें मुख में भी अमृत चला गया, जिससे मंसूर का अंतःकरण साफ हो गया। उसकी लगन सतगुरू से मिलने की प्रबल हो गई। वह आश्रम के द्वार पर आया और सीधा गुरू समशतरबेज के चरणों में गिर गया। अपने मन के पाप को बताया। अपने उद्धार की भीख माँगी। समशतरबेज ने दीक्षा दे दी।

मंसूर प्रतिदिन आश्रम में जाने लगा तथा ‘‘अनल हक’’ मंत्र को बोल-बोलकर जाप करने लगा। मुसलमान समाज ने मंसूर का विरोध करते हुए कहा कि मंसूर काफिर हो गया। परमात्मा को मानुष जैसा बताता है। पृथ्वी पर आता है परमात्मा, ऐसा कहता है। अनल हक का अर्थ गलत करके मंसूर अपने को अल्लाह कहता है। इसे जिंदा जलाया जाए या अनल हक कहना बंद कराया जाए। मंसूर राजा का लड़का था। इसलिए किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि मंसूर को मार दे। यदि कोई सामान्य व्यक्ति होता तो कब का राम नाम सत कर देते। नगर के हजारों व्यक्ति राजा के पास गए। राजा को मंसूर की गलती बताई। राजा ने सबके सामने मंसूर को समझाया। परंतु वह अनल हक-अनल हक का जाप करता रहा।[8]

नगर का प्रत्येक व्यक्ति एक-एक पत्थर जो लगभग आधा किलोग्राम का था, मंसूर को यह कहते हुए मारने लगे कि छोड़ दे काफर भाषा। यदि मंसूर अनल हक कहे तो पत्थर मारे, और आगे चले जाए। दूसरा भी यही कहे। तंग आकर मंसूर अनल हक कहना त्याग देगा। नगर के सारे नागरिक एक-एक पत्थर लेकर पंक्ति बनाकर खड़े हो गए। उन नागरिकों में भक्तिमति शिमली भी पंक्ति में खड़ी थी। उसने पत्थर एक हाथ में उठा रखा था तथा दूसरे हाथ में फूल ले रखा था। शिमली ने सोचा था कि भक्त-भाई है। पत्थर के स्थान पर फूल मार दूँगी। जनता में मेरी निंदा भी नहीं होगी तथा भाई को भी कष्ट नहीं होगा। प्रत्येक व्यक्ति (स्त्राी-पुरूष) मंसूर से कहते कि छोड़ दे अनल हक कहना, नहीं तो पत्थर मारेंगे,  मंसूर बोले अनल हक, अनल हक, अनल हक, अनल हक। पत्थर भी साथ-साथ लग रहे थे। मतवाले मंसूर अनल हक बोलते जा रहे थे।

शरीर लहू-लुहान यानि बुरी तरह जख्मी हो गया था। रक्त बह रहा था, परन्तु फिर भी मंसूर हँस रहा था। जब शिमली बहन की बारी आई। वह कुछ नहीं बोली। मंसूर ने पहचान लिया और कहने लगा, बहन! बोल अनल हक। शिमली ने अनल हक नहीं बोला। हाथ में ले रखा फूल भाई मंसूर को मार दिया। मंसूर बुरी तरह रोने लगा। शिमली ने कहा, भाई! अन्य व्यक्ति पत्थर मार रहे थे। घाव बन गए, आप रोये नहीं। मैंने तो फूल मारा है जिसका कोई दर्द नहीं होता। आप बुरी तरह रोने लगे। क्या कारण है? मंसूर बोला कि बहन! जनता तो अनजान है कि मैं किसलिए कुर्बान हूँ। आपको तो ज्ञान है कि परमात्मा के लिए तन-मन-धन भी सस्ता है। मेरे को भोली जनता के द्वारा पत्थर मारने का कोई दुःख नहीं था क्योंकि इनको ज्ञान नहीं है। हे बहन! आपको तो सब पता है। मेरे को इस मार्ग पर लाने वाली तू है। तेरा हाथ मेरी ओर कैसे उठ गया? बेईमान तेरे फूल का पत्थर से कई गुना दर्द मुझे लगा हैं। तेरे को (मुरसद) गुरूजी क्षमा नहीं करेंगे।

नगर के सब व्यक्ति पत्थर मार-मारकर घर चले गए। कुछ धर्म के ठेकेदार मंसूर को जख्मी हालत में राजा के पास लेकर गए तथा कहा कि राजा! धर्म ऊपर राज नहीं। परिवार नहीं है। मंसूर अनल हक कहना नहीं छोड़ रहा है। इससे कहा जाए कि या तो अनल हक कहना त्याग दे, नहीं तो तेरे हाथ, गर्दन, पैर सब टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाऐंगे। यदि यह अनल हक कहना नहीं त्यागे तो इस काफिर को टुकड़े-टुकड़े करके जलाकर इसकी राख दरिया में बहा दी जाए। मंसूर को सामने खड़ा करके कहा गया कि या तो अनल हक कहना त्याग दे नहीं तो तेरा एक हाथ काट दिया जाएगा। मंसूर ने हाथ उस काटने वाले की ओर कर दिया (जो तलवार लिए काटने के लिए खड़ा था) और कहा कि अनल हक। उस जल्लाद ने एक हाथ काट दिया।

फिर कहा कि अनल हक कहना छोड़ दे नहीं तो दूसरा हाथ भी काट दिया जाएगा। मंसूर ने दूसरा हाथ उसकी ओर कर दिया और बोला ‘‘अनल हक’’। दूसरा हाथ भी काट दिया। फिर कहा गया कि अबकी बार अनल हक कहा तो तेरी गर्दन काट दी जाएगी। मंसूर बोला अनल हक, अनल हक, अनल हक। मंसूर की गर्दन काट दी गई और फँूककर राख को दरिया में बहा दिया। उस राख से भी अनल हक, अनल हक शब्द निकल रहा था। कुछ देर बाद एक हजार मंसूर नगरी की गली-गली में अनल हक कहते हुए घूमने लगे। सब डरकर अपने-अपने घरों में बंद हो गए। परमात्मा ने वह लीला समेट ली। एक मंसूर गली-गली में घूमकर अनल हक कहने लगा। फिर अंतध्र्यान हो गया।

गुरु

परमात्मा कबीर जी अपने सिद्धांत अनुसार एक अच्छी आत्मा समशतरबेज मुसलमान को जिंदा बाबा के रूप में मिले थे। उन्हें अल्लाहू अकबर (कबीर परमात्मा) यानि अपने विषय में समझाया, सतलोक दिखाया तथा वापिस छोड़ा। उसे केवल एक मंत्र दिया ‘‘अनल हक’’ जिसका अर्थ मुसलमान गलत करते थे कि मैं वही हूँ यानि मैं अल्लाह हूँ अर्थात् जीव ही ब्रह्म है। वह यथार्थ मंत्र ‘‘सोहं’’ है। इसका कोई अर्थ करके स्मरण नहीं करना होता। इसको परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का वशीकरण मंत्र मानकर जाप करना होता है। समशतरबेज परमात्मा के दिए मंत्र का नाम जाप करता था। बहन शिमली उनकी शिष्या हुई तथा बाद में भाई मंसूर अल हल्लाज ने भी उनसे नाम दीक्षा ली।

शिक्षाएं

अल-हल्लाज ने खुद को लोकप्रिय दर्शकों के लिए संबोधित करते हुए उन्होंने उन्हें अपनी आत्मा के अंदर भगवान को खोजने के लिए प्रोत्साहित किया, दिलाया। उन्होंने पारंपरिक सूफी आदत के बिना प्रचार किया और स्थानीय शिया आबादी से परिचित भाषा का इस्तेमाल किया। इससे यह पता चलता है वह एक सूफी के बजाय एक कर्मेटियन मिशनरी थे। हालांकि लुईस मैसिग्नन ने इसे सभी मुसलमानों की ओर से प्रायश्चित के रूप में बलिदान करने की इच्छा की अभिव्यक्ति के रूप में व्याख्या की है। जब अल-हलाज अपनी अंतिम तीर्थयात्रा से बगदाद लौटे, तो उन्होंने निजी पूजा के लिए अपने घर में काबा का एक मॉडल बनाया था।[10]

तीर्थयात्रा

अल-हल्लाज मक्का में भ्रमण के लिए गए तब वहां उन्होंने मौन में अभयारण्य के प्रांगण में एक वर्ष तक रहने का संकल्प लिया। जब वह मक्का से लौटे, तो उन्होंने सूफी अंगरखा बिछाया और अधिक स्वतंत्र रूप से प्रचार अल्लाह का प्रचार करने लगे।[11]

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

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