ख़लीफ़ा

खलीफा (अरबी: خليفة‎‎ ; ख़लीफ़ा , अंग्रेज़ी: Caliph या Khalifa) अरबी भाषा में ऐसे शासक को कहते हैं जो किसी इस्लामी राज्य या अन्य शरिया (इस्लामी कानून) से चलने वाली राजकीय व्यवस्था का शासक हो। पैगम्बर मुहम्मद की 8 जून 632 ईसवी में मृत्यु के बाद वाले खलीफा पूरे मुस्लिम क्षेत्र के राजनैतिक नेता माने जाते थे। खलीफाओं का सिलसिला अन्त में जाकर उस्मानी साम्राज्य के पतन पर तुर्की के शासक मुस्तफा कमालपाशा द्वारा 1924 ई॰ में ही समाप्त हुआ।[1]

शब्द के बारे में

अरबी में 'खलीफा' शब्द का मतलब 'प्रतिनिधि' या 'उत्तराधिकारी' होता है। पैगम्बर मुहम्मद की 632 ईसवी में मृत्यु के बाद पूरे मुस्लिम जगत की राजनैतिक बागडोर संभालने वालों को 'खलीफा रसूल अल्लाह' कहा जाता था, यानि 'अल्लाह के रसूल (सन्देशवाहक) का उत्तराधिकारी'। जिस प्रकार 'रईस' के राज को 'रियासत', 'अमीर' के राज को 'अमीरात' और 'खान' के राज को 'खानत' कहते थे, उसी तरह 'खलीफा' के राज को 'खिलाफत' कहा जाता था।

राशिदी खलीफा और शिया-सुन्नी विवाद

पैगम्बर मोहम्मद के देहान्त के बाद के पहले चार खलीफाओं को सुन्नी मत के अनुयायी 'राशिदी खलीफा' कहते हैं, जिसे अरबी लहजे में 'खलीफा उर-राशिदुन' और फ़ारसी लहजे में 'खलीफा-ए-राशिदीन' भी कहते हैं। 'राशिद' का मतलब अरबी में 'सही मार्ग पर चलने वाला' होता है। यह चार खलीफा इस प्रकार थे: अबु बकर अस-सिद्दीक़, उमर इब्न अल-ख़त्ताब, उस्मान इब्न अफ़्फ़ान और अली इब्न अबू तालिब। यह चारों मोहम्मद साहब के जीवनकाल में उनके साथी रहे थे। पैगम्बर मुहम्मद के गुजरने के तुरन्त बाद आपसी बातचीत से अबु बकर को खलीफा चुना गया और मुहम्मद के साथियों ने उनसे वफ़ादारी की शपथ ली। इस चुनाव से कुछ लोग नाराज हुए क्योंकि उन्हें लगा की अली ही पैगम्बर के सबसे करीबी सम्बन्धी थे इसलिए उन्हें ही खलीफा बनना चाहिये था।[2]

अबू बकर का शासन ६३२ से ६३४ केवल दो साल ही चला था कि वे बीमार पड़े और मृत्योदशा पर आ पहुँचे। देहांत से पहले उन्होंने बिना विचार-विमर्श के उमर को ख़लीफ़ा बना दिया। उमर से वफ़ादारी की शपथ केवल उन्ही साथियों ने ली जो उस समय मदीना में थे, जिस से कुछ अन्य साथियों ने उन्हें ख़लीफ़ा मानने से आनाकानी करनी शुरू कर दी। उस समय अरबों ने इस्लाम फैलाने के लिए ईरान पर हमला किया और इस से क्रोधित होकर कुछ ईरानियों ने उमर को सत्ता लेने के लगभग १० वर्षों बाद ७ नवम्बर ६४४ ईसवी को मार डाला। उमर ने पहले ही छह लोगों का एक गुट बनाया था जिसमें से आपसी समझौते से उन्होंने एक को चुनकर ख़लीफ़ा बनाना था। इसमें अली और उस्मान शामिल थे। उस्मान को चुना गया और वे ११ नवम्बर ६४४ तीसरे ख़लीफ़ा बने। लगभग १२ साल बाद १७ जुलाई ६५६ को कुछ विद्रोहियों ने उनकी भी हत्या कर दी और अली को चौथा ख़लीफ़ा चुना गया। शिया अनुयायिओं का मत है कि पहले तीन ख़लीफ़ाओं का राज नाजायज़ था और शुरू से ही अली को ख़लीफ़ा होना चाहिए था क्योंकि वे पैग़म्बर के पारिवारिक रिश्तेदार भी थे और उनकी बेटी फ़ातिमा के पति भी।

अली की खिलाफत और उमय्यद राजवंश

जब अली खलीफा बने तो बहुत उपद्रव और विरोह हुए। सबे बड़ी चुनौती दमिश्क के राज्यपाल मुआवियाह (Muʻāwīya, معاوية) से आई जो उस्मान के रिश्तेदार थे और जिनकी बहन से पैग़म्बर मुहम्मद ने विवाह किया था। मुआवियाह का कहना था की अली उनके सम्बन्धी उस्मान के क़ातिलों को पकड़ नहीं रहे हैं। उन्होंने फ़ुरात नदी के किनारे अली की फ़ौजों के साथ 'सिफ़ीन का युद्ध' छेड़ा जिसमें किसी की जीत-हार न हुई। खून-खराबा रोकने के लिए अली मुआवियाह से बातचीत करने को राजी हो गये।[3]

अली की फ़ौजों में ४,००० कट्टरपंथी लोगों का गुट था जो 'ख़ारिजी' कहलाते थे और जिनका यह कड़ा मत था कि हार-जीत का निर्णय केवल ईश्वर के हाथ में है और मरते दम तक यह युद्ध नहीं रोकना चाहिए। वे अली को सही मार्ग से भटकने का दोषी मानते हुए उनसे अलग हो गए। लगभग दो साल बाद 'नहरवान के युद्ध' में अली को ख़ारिजियों से लड़ना पड़ा जिसमें अली की जीत हुई। इसके बाद एक दिन वह कूफ़ा के मस्जिद में नमाज़ पढ़ रहे थे जब उनपर 'इब्न मुल्जम' नाम के एक ख़ारिजी ने ज़हर मली हुई तलवार से हमला किया। वे गुज़र गए। उनके दो बेटों - हसन और हुसैन - में से एक को ख़लीफ़ा चुना जाना था, क्योंकि पैग़म्बर मुहम्मद दोनों के नाना थे और अली ने निर्देश दिया था कि उनके बाद का ख़लीफ़ा पैग़म्बर के घराने का ही होना चाहिए।

हसन को छठा ख़लीफ़ा बनाया गया लेकिन उनके ख़लीफ़ा बनते ही मुआवियाह ने उनकी फ़ौजों को उनके विरूद्ध भड़काना शुरू कर दिया। हसन और मुआवियाह के बीच युद्ध की सूरत बन आई। मुस्लिम समुदाय को बंटने से रोकने के लिए हसन ने समझौता किया कि वे ख़लीफ़ा की गद्दी त्याग देंगे और मुआवियाह को ख़लीफ़ा स्वीकार लेंगे बशर्ते मुआवियाह की मृत्यु के बाद गद्दी वापस हसन या उनके उत्तराधिकारी को मिले। मुआवियाह सातवा ख़लीफ़ा तो बन गया लेकिन उसकी मर्ज़ी थी कि उसके बाद उसका बेटा याज़िद ख़लीफ़ा बने। कहा जाता है कि मुआवियाह ने हसन की किसी पत्नी को उकसाकर हसन को ज़हर खिलवाया जिस से हसन की मृत्यु हो गई। जब ६८० में मुआवियाह मरा तो उसके बेटे याज़िद ने आठवा ख़लीफ़ा बनने की घोषणा कर दी। अली के दुसरे बेटे हुसैन ने यह मानने से इनकार कर दिया। १० अक्टूबर ६८० में 'करबला का युद्ध' हुआ जिसमें हुसैन को शहीद कर दिया गया । फिर उनके ६ महीने की उम्र के बेटे को मारा गया और उनके परिवार की स्त्रियों का अपमान किया गया। हर साल शिया लोग मुहर्रम में इन घटनाओं का मातम मानते हैं। मुआवियाह और याज़िद के साथ उमय्यद ख़िलाफ़त शुरू हो गई।[4]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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